III Sem B.A/B.Sc

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III Sem.B.A.B.Sc

भक्तिकाल 

  हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग                    

भक्ति दो प्रकार का 👉  सगु भक्ति और निर्गुण भक्ति
   1.सगुण भक्ति –राम(तुलसीदास)

                      कृष्ण( सूरदास,मीराबाई )

   2.निर्गुण भक्ति –ज्ञानाश्रयी( कबीरदास )

                       प्रेमाश्रई (जायसी)    

                            कबीर दास 
 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत ।  
 ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कवि 
 रामानंद का शिष्य 
 अनपढ़ फकीर 
 देशाटन और साधुओं की संगति से ज्ञानी बने 
 गुरु को प्रमुख स्थान 
कबीरदास  का ईश्वर  - निर्गुण-निराकार ब्रह्म  
 कबीर का सारा जीवन सत्‍य की खोज तथा असत्‍य के खंडन में व्‍यतीत हुआ। 
 कवि और समाज सुधारक 
 सधुक्कड़ी या पचमेल खिचड़ी  भाषा 
 जनभाषा का प्रयोग 
कबीरदास वाणी का डिक्टेटर कहा  - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी 
कबीर भारतीय संस्कृति का हीरा
धर्मदास ने कबीरदास की वाणियों का संग्रह " बीजक " नाम के ग्रंथ मे किया |" बीजक " के तीन भाग है |
     'साखी',सबद और 'रमैनी'
 कबीरदास परिचय - वीडियो क्लास  

दोहा 1                                                                                             

सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार।लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावनहार ॥ 
 गुरु की महिमा के बारे में  कबीरदास जी यहाँ हमें बता रहे है | गुरु की महिमा अनंत और  अपार है | गुरु ने  अपने अपार ज्ञान मुझे दे दी |इस तरह मेरी दृष्टि अंनत हो गयी |अनंत प्रभु का साक्षात्कार  इस तरह मुझे  मिला |

II. सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
     सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
      पूरी धरती को कागज़ ,जंगल को कलम और सातों समुद्र की पानी को स्याही बना कर लिखने पर भी गुरु की  महिमा लिख नहीं पायेंगे | गुरु का महत्व कबीरदास यहाँ साबित कर रहा है |

 III    '' जाके मुंह माथा नहीं, न ही रूप सुरूप।      पुहुप बास ते पातरा ऐसा तत्व अनूप।।'‘ 

 कबीरदास  निराकार ब्रह्म के उपासक थे | निराकार परमात्मा का  स्वरुप इस दोहे में व्यक्त किया है| परमात्मा का रूप सुन्दर नहीं है ,कुरूप नहीं है |उसको मुँह माथा नहीं है | जिस प्रकार फूल का सुगंध
 हम महसूस कर सकते है ,मगर दिख नहीं पाता | उसी प्रकार परमात्मा भी अगोचर और अरूप है |

IV . सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।"

   सुख के पीछे दुनिया भाग रहे है |लेकिन दुनिया जिसे सुख मान कर उसकी प्राप्ति के लिए अपना जीवन व्यर्थ  रूप से खो रहे है,वह असल में सुख नहीं है|कबीरदास समझा रहा है ,परमात्मा को पहचानना और उस परमात्मा  की प्रप्ति के लिए कोशिश करते रहना और अंत में परमात्मा से मिलना -यहीहमें वास्तविक सुख देंगे |

V ."प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।  राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।"

 प्रेम का स्वरुप इस दोहे में कबीरदास जी बता रहा है |प्रेम न खेत में पैदा होता है और न उसे बाज़ार में मिलेंगे |अपना सर्वस्व छोड़नेवालों को ही प्रेम का परम सुख मिल जाएगा|गर्व या घमंड मन में है तो प्रेम का यथार्थ मजानहीं मिलेगा | परमात्मा से मिलने के लिए जीवात्मा को अह्मबोध छोड़ना होगा|जो उस प्रेम का स्वरुप पहचानता है,वह हमेशा वह मिलने की कोशिश करते रहेंगे 

 वीडियो  क्लास कबीरदास ३ दोहा
 वीडियो क्लास -कबीरदास ४,५ दोहा
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                II               सूरदास 

सूरदास [  
भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक  
वल्लभाचार्य के शिष्य 
वल्लभाचार्य से   पुष्टिमार्ग की दीक्षा 
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है 
सूर का भ्रमरगीत वियोग श्रृगार  का  उत्कृष्ट ग्रंथ 
ब्रज भाषा में रचना कार्य 
व्रज भाषा कोकिल 
विट्टलनाथ ने 'पुष्टी मार्ग'का  जहाज़ माना
सूरसागर दशम स्कन्ध -श्रीकृष्ण के बाल लीलाओं  का वर्णन 


सूरदास की रचनाएँ 

सूरसागर - सूरदास की कीर्ती का आधार ,बाल चेष्टाओं का विश्वकोश 
सूरसारावली -कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पद 
साहित्य लहरी -राधा -कृष लीला का वर्णन 

1."आजु हौं एक-एक करि टरिहौं ।-----प्रभु जब हँसि दैहौ बीरा"||
 सूरदास श्रीकृष्ण से बता रहे है - है भगवान  आज हम दोनों में से किसी एक का विजय होगा| कई जन्मों से मैं  मुक्त होने की कोशिश कर रहा था|मेरा सातों जन्म हो चुका है| भारतीय विचारधारा के अनुसार सात जन्म लेने पर ही मनुष्य को पितृ  ऋण से  मुक्त  होंगे  |इस जन्म में मुझे हरी  रूपी हीरा  मिल गया है| अर्थात श्रीकृष्ण को  मिला है |इसलिए सूरदास बता रहे है मुझे मुक्ति मिलना ही चाहिए |जब तक तुम्हारी कृपा मुझ पर पड़ेगी,तब तक मैं  तुम्हारे  चरणों पर पड़ा रहूँगा|अगर तुम मेरे उद्धार  नहीं करोगे तो भक्त गण  तुम पर भरोसा नहीं करेंगे|

2."नर तैं जनम पाइ कह कीनो ?---------  बिनु ज्यौ अंजलि-जल छीनौ"||

    सूरदास बता रहे है -नर जन्म तो कई जन्म लेने के बाद  ही मिलते है |उस तरह नर जन्म लेकर तुम क्या कर  रहे हो ? अन्य  जीवों के समान पेट भरने केलिए ही जिया और परमात्मा का नाम लेना भूल गया |गुरु और परमात्मा को पहचानने का कोई भी काम तू ने नहीं किया |परमात्मा से मिलने का रास्ता खोजने के बदले तुम सुख के पीछे चलते रहे |असली सुख तो परमात्मा से मिलने पर ही प्राप्त होंगे | प्रियतमा से मिलने के कारण तुम तो  परमात्मा को भूल गया |परमात्मा से दूर हो जाने के कारण पापों का संचय अब सुमेरु पहाड़  की तरह बढ़ चुका है|चौरासी लाख योनियों से गुजरने के बाद प्राप्त मानव जन्म  तुम इस तरह नष्ट मत करो|ईश्वर स्मरण के बिना जीवन पूर्ण नहीं होंगे |इसलिए  ईश्वर भजन में डूबने  की कोशिश करो |     

              ईश्वर भजन की आवाश्यकता पर यहाँ प्रकाश डाल  रहा है |

ऑडियो क्लास सूरदास पद 2

 3.अपनौं गाउँ लेउ नँदरानी।---------जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई।। 

ऑडियो क्लास -सूरदास पद 3

          एक गोपिका यशोदा मैया से कन्हाई के बारे में शिकायत कर रही है - ‘नन्दरानी!  तुम्हारे लाडले के कारण  अब यहाँ जीना मुश्किल बन गया है|हम किसी दूसरे गाँव में बसने के बारे में सोचने के लिए विवश हो रहे है । तुम तो नामी  पिता की पुत्री हो, सो पुत्र को अच्छी बात बताना चाहिए|इस तरह माखन चोरी करने क्यों सिखा रही हो? वह स्वयं खा ले तो ठीक है | मगर वह करता क्या है ?अपने दोस्तों के साथ    घर में घुसता है। जब मैं सामने से पकड़ने चली, उस समय की इसकी चेष्टा क्या कहूँ। मेरे देखने में तो वह  कहीं  छिप गये|मैं घर लौटकर लेट गयी, तो वह  धीरे-धीरे पीछे से मेरी चोटी पकड़कर पलंग की पाटी में बाँध दी!

       यह शिकायत सुनकर कन्हैया माँ को समझाने लगे  यह औरत झूठ बोल  रही है|इसने बड़े प्यार से मुझे अपना घर बुलाई और मुझसे दही में गिरे चींटों को निकालने का काम करवाया और खुद अपनी पती  के साथ सो गयी|मुझे इनके घर का भी रखवाली करना पड़ा|सूरदासजी कहते हैं कि कृष्ण की बातें  सुनकर यशोदा  हँसने लगी  और गोपिका शर्म के कारण मुख छिपाने लगी|

वीडियो  क्लास -सूरदास पद- 1
वीडियो  क्लास -सूरदास पद -2
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                                  III        तुलसीदास 
हिंदी साहित्य के महान कवि 
नाभादास की राय  में   कलिकाल वाल्मीकी 
बुद्ध देव के बाद का सबसे बड़ा लोकनायक -ग्रियेर्सन 
 भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि 
श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। 
रचनाएँ भारतीय संस्कृति का दस्तावेज़ 
गुरु- नरहरी 
भाषा- अवधी, ब्रज,संस्कृत 
रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर” 
‘रामचरितमानस’ के लिए अवधी , संस्कृत पदावली का प्रयोग 
‘रामचरितमानस’ दोहा चौपाई शैली में लिखा गया है 
रचनाएँ 

रामलला नहछू ,जानकी मंगल,रामचरितमानस ,गीतावली,विनयपत्रिका,कृष्ण गीतावली,बरवै रामायण  आदि 

 रामचरितमानस शुरू से अंत तक समन्वय-काव्य है।" -आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी 

     * लोक और शास्त्र का समन्वय |

     * भक्ति और ज्ञान का समन्वय|

     * भाषा और संस्कृति का समन्वय|

     * निर्गुण और सगुण का समन्वय|

     * पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय है।

  गोस्वामी तुलसीदास द्वारा  रचित श्री रामचरित मानस भारतीय संस्कृति मे एक विशेष स्थान 

♤ महर्षि   वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत रामायण को रामचरितमानस का आधार माना जाता है| 

 रामचरितमानस को  तुलसीदास ने सात काण्डों में विभक्त किया है  - बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड,  अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड)  और उत्तरकाण्ड।  


  रामचरित मानस के सात कांडों में से एक है सुन्दरकाण्ड  | सम्पूर्ण मानस में श्री राम के शौर्य और विजय की गाथा है,मगर  सुन्दरकाण्ड में राम के परम  भक्त हनुमान के बल और विजय देख पाएंगे | हनुमान जी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से भेंट करके उन्हें श्री राम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसीका वर्णन इस अध्याय में हुआ है |

           सुंदर काण्ड के दो  चरित्र है सीता ओर हनुमान। हनुमान तो भक्त है ओर सीता शक्ति है ओर राम शक्तिमान। श्रीराम और सीता अभिन्न है | सीता राम को कभी भी  भूली  नहीं  है | हनुमान ने भी जो भी पराक्रम दिखाये,  सभी कार्य का श्रेय  अपने प्रभु श्रीराम को दिया है,|यही सुंदरकाण्ड की शोभा बढ़ाती है।  


         I               हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
                           राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ((1))
        सीता से मिलने समुद्र पार करनेवाले हनुमान को आराम करने के लिए समुद्र की आज्ञा से मैनाक पर्वत ऊपर उठ आते है |अपनी सेवा के लिए आये मैनाक पर्वत से हनुमान जी ने कहा – “मै राम की आज्ञा पूर्ती के लिए निकला  हूँ| वह काम पूरा  करने के पहले आराम कर नहीं पाएँगे |”  हनुमान की कर्तव्य परायणता यहाँ तुलसीदास जी ने बताया है |   

      II   राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

              आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2

     सुरसा नागमाता है।उन्हें देवताओं ने हनुमान के शक्‍ति की परीक्षा लेने के लिये भेजा था। समुद्र पार करते वक्त सुरसा और हनुमान जी के बीच लड़ाई होती हैऔर हनुमान जी का विजय होता है| सुरसा  ने हनुमान से कहा तुम श्री रामचंद्र जी का सब कार्य कर पाओगे |क्योंकि तुम बल- बुद्धि के भंडार हो|  यह आशीर्वाद देकर सुरसा चली गई |आशीर्वाद पाकर
हनुमान जी हर्षित होकर आगे निकले|          
     III      पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।   
                  अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

          समुद्र पार कर लंका पुरी की और जाते वक्त हनुमान ने देखा,भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा
 सावधानी से लंका  नगर की चारों दिशाओं से  रखवाली करते हैं।  लंका नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान ने   मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धारण करके  रात के समय नगर में प्रवेश करना अच्छा होगा ॥

सुन्दर काण्ड ३ पंक्तियाँ

                                  मैथिलीशरण गुप्त सखि, वे मुझसे कहकर जाते

   

  • राष्ट्र कवि और दद्दा  रूप में विख्यात 
  •  कविताओं में बौध्द दर्शन, महाभारत तथा रामायण के कथानक आते हैं।  
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित 'सरस्वती'पत्रिका के माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश 
  • मैथिलीशरण गुप्त को 1930 में महात्मा गांधी ने  राष्ट्रकवि कहा था
  • महाकाव्य: साकेत
  • १९५४  में  भारत सरकार ने 'पद्मभूषण'से सम्मानित किया 
  •  खंड काव्य-कविता संग्रह: जयद्रथ-वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, पत्रावली, स्वदेश संगीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, झंकार, पृथ्वीपुत्र, मेघनाद वध; नाटक: रंग में भंग, राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी व्रजांगना, वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, हिडिम्बा, हिन्दू; अनूदित: मेघनाथ वध, वीरांगना, स्वप्न वासवदत्ता, रत्नावली, रूबाइयात उमर खय्याम
  • गुप्त जी ने अपने काव्य में केकई , मंथरा , उर्मिला , यशोधरा जैसेनारियों को स्थान दिया जो काव्य ग्रंथ में सदा के लिए उपेक्षित पात्र बन गई थी।   
  • ” अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

            आंचल में है दूध और आंखों में पानी।”

  • गुप्त जी ने नारी की दर्जा ऊंचा उठाने का प्रयास किया है 

मैथिलि शरण गुप्त के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए  देखें -



'यशोधरा' में उन्होंने भगवान बुद्ध की कथा को काव्य-कथा के रूप में प्रस्तुत किया है 

‘’ मुझसे कहकर जाते’’ मे यशोधरा के मन पूरा दर्द कवि ने बहुत सादगी के साथ काव्य मे प्रस्तुत  दिया है। 

यशोधरा कविता का भाग है -सखि, वे मुझसे कहकर जाते


छायावादी कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'यशोधरा' काव्य की पंक्तियाँ 

नवजागरण के आवाज है 'यशोधरा'

 यशोधरा के स्वाभिमानी रूप वर्णन  'सखि, वे मुझसे कहकर जाते'कविता में देख पाएँगे |

यशोधरा का मानना है कि सिद्धार्थ ने जो कृत्य किया उससे सभी नारी जाती अपमानित   है। उन्होंने रात में

 सोते बच्चे व पत्नी को छोड़ कर गया ,जो  नारी समाज के लिए कलंक है।  


व्याख्या 

     यशोधरा महात्मा बुद्ध की पत्नी थीं, और वे भारतीय साहित्य में कई कवियों और लेखकों के लिए प्रेरणा स्रोत रही हैं |इस कविता में यशोधरा की मनोदशा और उनके भीतर की वेदना को मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया गया है, जब उनके पति, सिद्धार्थ (जो बाद में बुद्ध बने), उन्हें छोड़कर सत्य की खोज में निकल जाते हैं |

             यशोधरा को यह दुख हुआ कि आत्म साक्षात्कार  के  लिए पति(सिद्धार्थ ) को जाना ही था तो उसे  बता  कर जाना  था । यशोधरा कह रही है, अगर पति मुझे कहकर जाते तो मै  कभी भी उनकी राह में बाधा  नहीं बनती । मेरी पति  सिद्धार्थ सिद्धि के लिए गए,यह तो गर्व की बात है| परंतु क्यों  चोरों के समान गए उन्होंने मुझे माना बहुत परंतु पहचाना  नहीं| यशोधरा बार-बार कहती है कि हम नारियां कभी  पति  की राह में बाधा नहीं बनती। 

           मैं क्षत्राणी हूँक्षत्राणी पत्नी पती को सुसज्जित कर के   रण में भेजती हैं। क्षत्रिय धर्म का पालन  करते हुए  हम लोग  ही उन्हें युद्ध की मैदान में भेजती हैं |युद्ध की मैदान  से ज़िंदा  वापस आयेंगे या  नहीं यह  बता नहीं पायेंगी | ऐसी   क्षत्राणी  आत्म साक्षात्कार के लिए  निकलनेवाले पती को कभी भी नहीं रोकेगी |यह तो उने केलिए गर्व की बात ही है |

         जिसे अपनाया था उन्होंने  मुझे छोड़ा |बिछुडन के वक्त हमारी आंखों से ज़रूर आँसू निकलेगी | शायद इसलिए ही वह मुझसे कुछ कहे बिना आधी रात को  घर से निकले होंगे  अब वह आत्म साक्षात्कार मिलने  के बाद वापस आएँगे तब उनका स्वागत मैं हस्ते हस्ते कर नहीं  सकतीक्योंकि वे चोर की तरह रातों -रात भाग गया  था|
          इस कविता में यशोधरा एक ऐसी नारी के रूप में चित्रित होती हैं जो अनीति के खिलाफ प्रत्यक्ष रूप से आवाज़ नहीं उठातीं, बल्कि उनकी पीड़ा और त्याग के माध्यम से अपने अधिकार की माँग करती हैं। वे प्रश्न करती हैं कि आखिर क्यों उनके पति उन्हें बिना बताए छोड़कर चले गए। कविता में यशोधरा का संवाद उनके प्रेम, पीड़ा, और त्याग को उजागर करता है। उनके माध्यम से गुप्त जी  ने भारतीय नारी की सहनशीलता, कर्तव्यपरायणता और आंतरिक शक्ति को दर्शाया है।

वीडियो क्लास - सखी, वे मुझसे कह कर जाते

         

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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'                        जागो ,फिर एक बार 


सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी कविता के छायावादी कवी  
विष पीकर अमृत बरसाने वाला कवी 
हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक 
यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया 
दार्शनिक और भक्त कवी 
'समन्वय',  'मतवाला 'के संपादक 
 हिन्दी-साहित्य के प्राण ‘महाप्राण निराला 
छायावाद,रहस्यवाद और प्रगतिवाद की रचनाएँ 
जागो फिर एक बार -जागरण गीत 

काव्यसंग्रह: परिमल ,गीतिका,द्वितीय अनामिका,तुलसीदास,कुकुरमुत्ता,अणिमा,बेला,नये पत्ते,अर्चना,आराधना

गीत कुंज,सांध्य काकली

उपन्यास - अप्सरा (1931),अलका (1933),प्रभावती (1936),निरुपमा (1936),कुल्ली भाट (1938-39) etc

कहानी संग्रह

  1. लिली (1934)
  2. सखी (1935)
  3. सुकुल की बीवी (1941)
  4. चतुरी चमार (1945) ['सखी' संग्रह की कहानियों का ही इस नये नाम से पुनर्प्रकाशन।]
  5. देवी

नाटक  शकुंतला 

  •  निराला ने हिंदी कविता को एक आग दी, जो आज तक जल रही है 

जीवन के विषाद, विष, अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला, वह हिंदी साहित्य में

 अद्वितीय

निराला जी के बारे में जानकारी देखें

(परिमल कविता संग्रह का हिस्सा )


जागो फिर एक बार

प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें

अरुण-पंख तरुण-किरण

खड़ी खोलती है द्वार

जागो फिर एक बार

   

 भारत विश्व के नेता थे |लेकिन काल प्रवाह  में भारतीय अपनी क्षमता भूल गए |उसी मौके में अंग्रेजी लोग भारत को अपना बनाया|अपनी ताकत भूलकर सोनेवाले भारतीयों को निराला जी जगा रहे है |पूरी पकृति तुम्हें बुला रही है ,जागो ,फिर एक बार |निराला जी बता रहा है  रात में तारे   तुम्हें जगाने की  कोशिश करते रहे,मगर वे असफल रहे |अब सूरज निकल चूका है,नींद से उठने का वक्त आ  गया है|
 प्रकृति के बिम्बों से भारतीयों को जगाने की कोशिश  कर रहा है|

आंखे अलियों-सी

किस मधु की गलियों में फंसी,

बन्द कर पांखें

पी रही हैं मधु मौन

अथवा सोयी कमल-कोरकों में

बन्द हो रहा गुंजार

जागो फिर एक बार!

   मधुकर मधु पीकर कमल के फूलों में सो जाते है|कमल के मधु में मुग्ध  हो कर मधु कर कमल  के दलों के चारों और मंडराते रहते हैं  | शाम को कमल के दल बंद हो जाते है और मधुकर   उसके अंदर फँस जाते हैं  |उसी प्रकार भारतीय विदेशियों के कब्जे में है |इस तरह सुध -बुध  छोड़ कर विदेशी राज के अंदर बैठने की गलती मत करो |अपनी ऑंखें खोलो और अपनी जन्म  भूमि को विदेशी शक्तियों से मुक्ति दिलाओ |कवी  यहाँ   कर्तव्य निभाने की प्रेरणा भारतीयों को दे रहे है |

अस्ताचल चले रवि,

शशि-छवि विभावरी में

चित्रित हुई है देख

यामिनीगन्धा जगी,

एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,

आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी

घेर रहा चन्द्र को चाव से

शिशिर-भार-व्याकुल कुल

खुले फूल झूके हुए,

आया कलियों में मधुर

मद-उर यौवन उभार

जागो फिर एक बार!

    सूरज अब पश्चिम  की ओर  जा चुका  है |आस्मान में चन्दमा आ  चुकी है |रात का सुगन्ध चारों  और फ़ैल चुका  है|चकोर अपनी प्रिय को मिलने की इच्छा से ,अपनी चाहत को अपने अन्दर  समेटे हुए उम्मीद भरी आँखों से चन्दमा को देख रहा है|शिशिर के आगमन से व्याकुल सभी फूल  सर झुका रहा है| हर कहीं मस्त वातावरण फ़ैल चुका  है|कलियों में मधु भरा हुआ है |पूरी प्रकृति में मादक  और प्रेरक वातावरण  फ़ैल चुका  है|
    परतंत्रता से मुक्ति के लिए कर्मवीर होने की  प्रेरणा कवि यहाँ दे रहा  है|

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे

सेज पर विरह-विदग्धा वधू

याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की

मूँद रही पलकें चारु

नयन जल ढल गये,

लघुतर कर व्यथा-भार

जागो फिर एक बार!

               प्रिय के विरह के कारण पपीहे पिऊ पिऊ रट  रहे है|विरहिणी बीते हुए प्रिय के साथ के पलों  यानि मिलन के पलों के बारे  में सोच कर ,अपने पिय से मिलने की कल्पना कर रही  है| उस मिलन के  पलों के बारे में सोच कर  उसकी आँखों से आँसू निकल रही है | इस तरह  उसको तसल्ली मिल रही  है|कवि यहाँ भारतवासियों को अपने अतीत से ऊर्जा पाकर उठने की प्रेरणा दे रहे हैं  |दुःख से बच कर आगे निकलना है,मोह निद्रा से जागो आज़ादी के लिए आगे आ जाओ |
     मोह निद्रा छोड़ कर जागने की प्रेरणा कवी यहाँ दे रहा है |

  सहृदय समीर जैसे

पोछों प्रिय, नयन-नीर

शयन-शिथिल बाहें

भर स्वप्निल आवेश में,

आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,

सब सुप्ति सुखोन्माद हो,

छूट-छूट अलस

फैल जाने दो पीठ पर

कल्पना से कोमन

ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।

तन-मन थक जायें,

मृदु सरभि-सी समीर में

बुद्धि बुद्धि में हो लीन

मन में मन, जी जी में,

एक अनुभव बहता रहे

उभय आत्माओं मे,

कब से मैं रही पुकार

जागो फिर एक बार

         आँखें पोंछ कर ,निद्रा के कारण उत्पन्न आलस्य से जागो ,मन में जोश भरो,आलस्य रुपी वस्त्र को छोड़ो|अपनी कल्पनाओं को मुक्त छोड़ो |तुम्हारी  तन और मन थक जाने पर जिस  प्रकार सुगंध हवा में विलीन हो जाता है उसी प्रकार तुम्हारी बुध्दी बुद्धि में और  मन मन में   विलीन होने दें|सभी जन जागृत हो उठें| सभी के दिलों  में स्वतन्त्रता का विचार आ  जाएँ|  सभी लोग  जागृत हो जायेंगे तो आज़ादी मिलना कोई मुश्किल काम नहीं रहेगा |
       कवि फिर से भारतवासियों को जागृत हो  जाने की प्रेरणा देते है
      

  उगे अरुणाचल में रवि

आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,

क्षण-क्षण में परिवर्तित

होते रहे प्रृकति-पट,

गया दिन, आयी रात,

गयी रात, खुला दिन

ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,

वर्ष कितने ही हजार-

जागो फिर एक बार! 

        सूर्य पूर्व दिशा से अपनी सैर शुरु कर चूका है |प्रकृति में प्रतिक्षण परिवर्तन होता  रहता है |दिन और रात आते जाते रहते है |इसी श्रृंखला में पक्ष ,मॉस और वर्ष  जुड़ जाते है|संसार चक्र चलता रहता है|वह कभी भी रुकता नहीं |समय की गति पहचानकर स्वतंत्रता के लिए आगे आने की प्रेरणा भारतीयों को कवि दे रहा है |
     जागरण की शक्ति  में कवि की आस्था इस कविता में प्रकट हो रहे है |यह कविता खासकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय की याद दिलाती है जब कवि लोगों को जागरूक और जागृत करने का आह्वान कर रहे थे। इसका मुख्य उद्देश्य सोई हुई जनता को जगाना और उन्हें अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत करना था।

👉 सुप्त भारतीय जनता को उनके गौरवमयी अतीत की याद दिलाते हुए उन्हें जगाने का आह्वान 

👉 भारतीयों के अंदर देशप्रेम की भावना जगाकर जोश भरने का प्रयत्न 

👉 प्रकृति की भंगिमा बताते हुए जागरण का शंख कवि फूंक रहे है |

👉 कवि भारतीयों को समझा रहा है तुम्हारी गुलामी  का कारण तो तुम्हारा ही आलस्य है 

👉 अपनी श्रेष्ठता को पहचान कर  आगे जाना है 

       
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नागार्जुन                                हम भी साझीदार थे 

मूल नाम  वैधनाथ मिश्र 

हिंदी/मैथिलि के लेखक 

उपनाम - यात्री ,नागर्जुन,वैदेह 

मैथिलि में 'यात्री'उपनामसे लेखन 

जन कवि,जन तन्त्र के  कवि 

राजनैतिक कविताओं के कवि 

लोकधर्मी जनचेतना के कवि 

नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर  कहा है 

 उपन्यास 

  • 'रतिनाथ की चाची'          'बलचनमा' 
  • 'नयी पौध'                       'बाबा बटेसरनाथ'
  • 'दुखमोचन'                '     वरुण के बेटे' 
  • उग्रतारा                           कुंभीपाक
  • पारो                                 आसमान में चाँद तारे 

कविता-संग्रह

  • अपने खेत में
  • युगधारा
  • सतरंगे पंखों वाली
  • तालाब की मछलियां
  • खिचड़ी विपल्व देखा हमने
  • हजार-हजार बाहों वाली
  • पुरानी जूतियों का कोरस
  • तुमने कहा था ..................................
नागार्जुन


हम भी साझीदार थे 

आत्मानुशासित ,जिम्मेदार और ईमानदार व्यक्ति लोकतंत्र का प्रारंभिक इकाई 

आत्मानुशासित ,जिम्मेदार और ईमानदार व्यक्ति की प्राप्ति   लोकतंत्र का लक्ष्य 

आत्मानुशासित ,जिम्मेदार और ईमानदार व्यक्ति की प्राप्ति   साहित्य का भी लक्ष्य 

स्वतन्त्रता,समानता और भाईचारा जनतंत्र के तीन लक्षण 

 

 











        यह कविता 1979 में लिखी हुई थी |उस जमाने में   कवि ने  जो प्रजा तन्त्र का चित्रण किया था,वह  आज  बहुत कुछ रूप बदल कर विकराल रूप धारण कर चूका है |  प्रजातंत्र आज पटरी से उतर  चूका  है सभी राजनैतिक दलों की स्थापना देशवसियों के भलाई के   लिए की थी |लेकिन ,बाद  में  नेता  गण   राजनीति को अपने और अपने परिवारवालों के भलाई के  लिए इस्तमाल करना शुरू किया  तो  पूरा दृश्य बदलने लगा |


            अपने पुत्र धर्म के मार्ग से दूर हो रहे है,यह जान कर भी 'महाभारत' के पात्र धृतराष्ट्र उसको  समझाने के लिए तैयार नहीं हुए |कई ज्ञानी लोग धृतराष्ट्र को समझाने आये| मगर  जन्मांधता के साथ  अधिकार की चाहत और अपने लोगों की भलाई की कल्पना के कारण वह  मौन विलीन रहा|इसका नतीजा क्या था ,हमें मालूम है  |  अधिकारी लोग गलत रास्ते से गुज़रते है तो उन्हें सही रास्ते पर  लाना ज्ञ्यानी लोगों का  काम है| मगर आज वे भी अपने और अपने लोगून के भलाई के लिए  अधिकारीयों के साथ रहने  लगे है | अधिकारीयों  से मिल रहे रोटी के टुकड़ों के लिए वे चुप रह रहे है |


             जिसकी बुद्धि स्थिर हुई है और जिसका मन संकल्प विकल्प से रहित हो कर  परमात्मा  का  प्रत्यक्ष अनुभव कर चूका है उसे 'स्थितप्रज्ञ'कहते है |कवि बता रहा है आज हम 'स्थितप्रज्ञ  के  समान  देश में हो रहे दुर्दशा को देखते रहते है |इसलिए कुछ भी करने का साहस नेता गण कर रहे है|  अधिकारी वर्ग के प्रिय जन बनने के लिए उन्हें फुल माल चढाने हम हिचकता नहीं  |राजघाट में  महात्मा के वध के बाद जनतन्त्र समस्याओं से जूझने लगे है|आज जन तन्त्र पूर्ण  रूप से पटरी से बाहर  आ चुके है | पटरी से बाहर आए रेलगाड़ी जिस प्रकार नलायक चीज़  बनते है ,उसी प्रकार जनतंत्र भी  आज अपना अस्तित्व खो चुके है|

कविता का प्रमुख संदेश यह है कि समाज में जो भी गलतियाँ या अन्याय हो रहे हैं, उनके लिए सिर्फ एक विशेष वर्ग या व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हम सभी उस समाज का हिस्सा हैं और हम सभी किसी न किसी रूप में उस अन्याय या गलती के लिए जिम्मेदार हैं। यह कविता एक सामूहिक चेतना और जिम्मेदारी को जागृत करने की कोशिश करती है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भूमिका का एहसास हो।

नागार्जुन की यह कविता सामाजिक चेतना और सक्रियता का एक आह्वान है, जिसमें वे पाठकों से अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी जिम्मेदारियों को समझें और समाज के सुधार में अपना योगदान दें।

भारतीय प्रजा तन्त्र की दुर्दशा 

प्रजातंत्र का बिगड़ा  स्वरुप 

प्रजातंत्र को खरीदनेवाले पूंचीवादी 

प्रजातंत्र शोषण का नया आयाम बन चूका है

हम भी साझीदार थे ,नागार्जुन  वीडियो  क्लास 




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                     मैं ने कहा पेड़ -"अज्ञेय" 



  • सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" 
  • कहानिकार, उपन्यासकार ,ललित-निबन्धकार, सम्पादक और अध्यापक 
  •  तारसप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का  संपादन 
  • सैनिक ,दिनमान,विशाल भारत ,बिजली का सम्पादक 
  • कहानियाँ:-विपथगा , परम्परा, कोठरीकी बात, शरणार्थी , जयदोल
  • उपन्यास:-शेखर एक जीवनी- प्रथम भाग(उत्थान), द्वितीय भाग(संघर्ष)1,नदीके द्वीप , अपने अपने अजनबी  ।
  • यात्रा वृतान्त:- अरे यायावर रहेगा याद? ,एक बूँद सहसा उछली 
  • निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल।
  • आलोचना:- त्रिशंकु , आत्मनेपद , भवन्ती , अद्यतन ।
  • संस्मरण: स्मृति लेखा
  • डायरियां: भवंती, अंतरा और शाश्वती।
  • विचार गद्य: संवत्‍सर
  • नाटक: उत्तरप्रियदर्शी
  • जीवनी: रामकमल राय द्वारा लिखित शिखर से सागर तक
  •  विविध

👍'कितनी नावों में कितनी बार' नामक काव्य संग्रह के लिये 1978 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

👍'कला का जोखिम' में निर्मल वर्मा ने अज्ञेय के प्रकृति-बोध को रेखांकित करते हुए लिखा है : 'वह

 पहाड़ों को देख कर मुग्ध होते हैं, तो नीचे जंगलों में पेड़ों के कटने का आर्तनाद भी सुनते हैं, बल्कि

 कहें, यह कटने का बोध उनके प्रकृति के लगाव में 'एंगुइश', एक गहरी दरार पैदा कर जाता है |

 उनकी कविताएँ अपने प्रतिद्वंद्वी रूपकों के बीच एक तरह से 'क्रॉस रेफरेंस' बन जाती हैं - सचेत

 अंतर्मुखी आधुनिकता और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच |' अज्ञेय के प्रकृति-बोध को निर्मल वर्मा ने

 'आधुनिक बोध की पीड़ा' का नाम दिया है | 

व्याख्या 

 मैं ने कहा पेड़ - ऑडियो क्लास


    कवि पेड़ से बता रहा है ,आँधी और बारिश  की सामना करते हुए तुम सैकड़ों सालों से यहाँ  रह रहे हो|सूरज और चाँद कई बार आते जाते  रहे |ऋतू बदले,मौसम बदले |लेकिन तुम  अडिग रहे |चारों और हो रहे बदलावों से अपने  आप बच कर तुम खड़े हो|सर ऊँचा करके तुम सालों से खडे हुए हो|


        पेड़ कवि से बोला -झूठा श्रेय  मुहे मत दो|सर झुकाकर और गिर कर ही मै यहाँ जी रहा हूँ|ऊपर ऊपर  बढ़ रहे मेरे पत्तों को देख  कर मेरा बडप्पन को आंकना सही नहीं है |मेरे बडप्पन  का मूल कारण तो मेरा जड़ें है |वे मिट्टी के  नीचे से नीचे जा कर मुझे मजबूत बना रहे  है| आस्मान तक मेरे शिखर पहुँच चुके है |यह सब लोग देखते है |मगर जड़ें कहाँ तक व्याप्त है,यह कोई नहीं जानता |
     मेरा श्रेय का आधार तो मेरा  जड़ें है|उनके कारण ही उँचे ऊँचे से उठने की क्षमता मुझे मिली |जड़ों से दूर हो कर जीना न मुमकिन बात है|मौसम के बदलाव जैसे सभी कठिनाईयों से मुझे जड़ों ने ही बचाया |उन जड़ों को बसने की जगह तो मिट्टी ने दी |इसलिए मेरा अस्त्तिव का पूरा  श्रेय तो मिट्टी को ही है|
     आज हम अपनी संस्कृति और परिवार से दूर हो रहे है|ऐसा करने से शायद हमें उन्नति तो  मिलेगी,मगर वह स्थाई नही रहेगा|इसलिए अपने जड़ों को पहचानकर जीने की सलाह पेड़ के  माध्यम से कवि दे रहा  है |उन्होंने सरल भाषा में गहरे दार्शनिक विचारों को व्यक्त किया है, जो पाठक को आत्म-निरीक्षण और प्रकृति के साथ अपने संबंधों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है।


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   अरुण कमल -  पुतली में संसार 



वास्तविक नाम अरुण कुमार 
सहज शैली के विख्यात समकालीन कवि 

प्रमुख रचनाये  

 अपनी केवल धार’ , ‘सबूत’, ‘नये इलाके में’, ‘पुतली  में संसार’,‘मैं वो शंख  महाशंख’ 

  अंग्रेजी में समकालीन भारतीय कविता के अनुवादों की एक पुस्तक – ‘वायसेज़’. 

वियतनामी कवि तो हू  की कविताओं तथा टिप्पणियों की अनुवाद-पुस्तिका

मायकोव्स्कीकी आत्मकथा के अनुवाद एवं अनेक देशी-विदेशी कविताओं के अनुवाद, आदि प्रकाशित 

'नये इलाके में' के लिए  साहित्य अकादमी पुरस्कार  
 किपलिंग की जंगल बुक का अनुवाद  
 इंटरनेट पत्रिका 'लिटरेट वर्ल्ड' के लिए स्तंभ-लेखन 

पुतली में संसार-ऑडियो क्लास

           

 'महाभारत' के पात्र   गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों के एकाग्रता की परीक्षा करने के लिए एक परीक्षा रखा था|सबसे द्रोणाचार्य पेड़ पर लटके गए मछली के पुतली पर तीर चलाने को कहते है |तीर चलाने  आनेवालों से वह पूछता है ,तू क्या देखता है? अर्जुन को छोड़  बाकी सब इस सवाल का विस्तृत उत्तर देता है| सिर्फ अर्जुन आंख ही देखता है  जवाब देता है|इसी घटना को आधार बना कर यह कविता लिखा गया है |

       कवि कहता है मुझे केवल पुतली ही नही,मछली,खंभे, आकाश,पास ही खड़े हुए धनुरधर आपके साथ साथ ढेर सरे आवाज़ भी सुनने को मिलता है|कवि कहता है मैं अपनी नज़र उस मछली की  पुतली पर स्थिर करने की कोशिश करते वक्त ,उस मछली की  पुतली में किसी और का छवि दिखाई दे रहा है | वह मछली किसको देख रहा होगा ? मुझे  ऐसा लग रहा है,उसके अन्दर से कोई मुझे देख रहा है |

         मेरी पुतली पर अनगिनत छाया पड रहा है |मैं सब कुछ भूल रहा हूँ|मै अपने  आपको असमर्थ पा रहा  हूँ|आँख का गोल देखना था मुझे ,लेकिन मुझे पता नही मैं इतना कुछ क्यों देख रहा हूँ |

         अरुण कमल पुतली में संसार के कवि हैं.| वे एक साथ अनेक चीजों को देखते हैं | कवि बता रहा है ,समग्रता की अनदेखी करते कवि का अस्तित्व ही नहीं होता|संसार को खण्डों और कक्षों में बांटने की बजाय सम्पूर्णता में देखने-दिखाने का  आदत हमे होना है| पर्यावरण पर हो रहा हमला ,राजनीति की अनैतिकता,समाज में बढ रहा  भय ,आतंक,गरीबी के साथ साथ गाँव ,शहर और देश में व्याप्त हो रहे हताशा की छवि  अपने पंचेन्द्रियों के माध्यम से कवि जानते रहते है|ऐसे अवसर पर  एक ही दृश्य पर अटल रहने में कवि अपने आप को असफल समझ रहे है|


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बीज व्यथा -ज्ञानेंद्रपति 

साठोत्तरी हिंदी कविता के सशक्त कवी  

समय के अनुभवों का चित्रण 
हिंदी,अंग्रेजी,भोजपुरी  भाषाविद 
 
कविता संग्रह : आँख हाथ बनते हुए, शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है, गंगातट, संशयात्मा, भिनसार
काव्य-नाटक : एकचक्रानगरी

कथेतर गद्य : पढते -गढ़ते

     बीज  बखारी के कुंठलों  में बंद  सूखते जा रहे थे | वही बीज खेत में उगा जायेगा और  नया  पौधा उग आयेगा |उस दिन की इंतजार में बीज सो रहा था| भारत की  पावन  भूमी में बोने के  वक्त  की इन्तजार में वह सोता रहा |बीज  बोने के बाद नया अंकुर आने का और पीला  पीला पत्तों से भरा  खेती का स्वप्न मेघ देखता रहा |अपने बोये गये फसल से बीज इकट्ठा करना  और  उससे नया  पौधा बनाना ,यह काम चलता रहा |

                   लेकिन,आज बीज अस्वस्थ है |क्योंकि भारत की पावन धरती पर बोने के लिए  विदेशके नया बीज, जीन बैंक से ला रहा है|संकर बीज होने के कारण उसको रासायनिक  खादों और  कीटनाशकों  कीभी आवश्यकता है | विदेशी बीजों के सामने भारतीय नस्ल के बीज दुबला समझा जाता है|जिस प्रकार टिड्डी दल फसल का नाश करने के लिए आते है ,उसी प्रकार विदेशी बीजों का गमन अब हो रहा है| विदेशी  बीजों की  रक्षा के लिए नए नए मशीन  भी आ रहे है|उस प्रकार भारतीय कृषि परम्परा का अंत हो रहां है | धीरे धीरे भारत की कृषि  भूमि और पर्यावरण दूषित हो रहा है|हाल  यहाँ तक पहुँच चूका है कि अब माँ  अपनी छाती से  शुद्ध दूध तक बच्चों को दे नही सकती|   
    भूमंडलीकरण  दुनिया के बीच के दूरी को कम किया है|मगर उसके  असर से हमारी   संस्कृति,भाषा,वेश भूषा,रहन सहन सब बदला है|सभी विश्व नगरिक होने की होड़ में है |प्रत्येक देश की अपनी पहचान अब खत्म हो रहा हैखेती के क्षेत्र में भूमंडलीकरण  किस प्रकार असर डाल रहा है  बताते हुए कवि हमारी अंजुली से खो रहे अपनी पहचान अपनी संस्कृति की ओर हमरा ध्यान आकृष्ट कर  रहा  है|
   भारतीय नस्ल के बीज अब पुराने किसानों के स्मृति में ही बचा हैभारतीय नस्ल के बीज  भारत के पर्यावरण को किसी भी प्रकार से हानी  नहीं पहुँचाते थे|कम पानी मिलने पर भी वह फसल देता था|नए नस्ल के बीज के लिए ज्यादा  पानी की अवश्यकता है |उस प्रकार जल का भी शोषण हो रहा है|पानी भूमि के अंदर से अंदर  जा रही है | पानी  की समस्या से बचने के लिए  बांध का निर्माण करना पड़ता है |यह नइ  समस्या पैदा कर्ता है |अंजुली भर पानी से भी भारतीय  बीज अच्छे फसल देते थे |वही बीज  अपनी तर्पण क लिए  अंजुली भर पनी की प्रतीक्षा कर रही है | खेती के क्षेत्र में नए नए  अविष्कार जिस प्रकार असर डाल रहा है ,इसका चित्रण कवि यहाँ कर रहा है |                      




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अनामिका                                              बेजगह 

   

             

 हिंदी साहित्य के समकालीन कवयित्री 

कविता संग्रह : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब धान .


विमर्श  : पोस्ट -एलियट पोएट्री, स्त्रीत्व का मानचित्र , तिरियाचरित्रम, उत्तरकाण्ड, मन

 मांजने की जरुरत, पानी जो पत्थर पीता है।


कहानी संग्रह : प्रतिनायक


उपन्यास : अवांतरकथा, पर कौन सुनेगा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास


अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कर्नाड), रिल्के की कवितायेँ , एफ्रो- इंग्लिश पोएम्स, अटलांट के आर-पार (समकालीन 
 अंग्रेजी कविता),आदि 

     * भारतीय समाज में  परिवार,बच्चा और नारी का चित्रण 

     * स्त्री जीवन के कवयित्री 

      * नई सोच को प्रकट करनेवाली नारी 


  बेजगह अनुवाद  -            https://www.shabdankan.com/2014/08/poems-of-anamika.html    

 

                            बेजगह कविता  का वाचन (अनमिका) -  अनामिका -बेजगह वाचन

व्याख्या 

 

        ' बेजगह'  अनामिका की स्त्री  विमर्श की कविता  है| इसमें  समाज में नारी की जगह क्या है ? इस विषय पर अपनी विचर प्रकट कर रही है | नाखून और केश अपनी जगह से अलग होने  पर वह बेमुल्य चीज़ बन जाता  है| अनमिका जी कहती  है -अपनी संस्कृत की  अध्यापिका ने हमें  सिखाई ,औरत भी  नाखून और केश की  श्रेणी में आती है| यह हम लडकियों को डरानेवाली  समस्या थी |केश और  नाख़ून को  प्यार से पालनेवाले भी उसके  गिर जाने के बाद ध्यान नहीं  देते|अनमिका यहाँ समाज में नारी की जगह क्या है ? यह सवाल उठा  रही है | 
     
    शिक्षा के शुरूआती दिनों में ही सिखाया जाता है राम  पाठशाला जा ,सीता खाना पका |राम  बताश खा,सीता  झाड़ू लगा |भैया अब सोने के लिए आएँगे जा कर बिस्तर  तैयार कर |इस प्रकार बच्चों में धारणा समाज डाल रहा है कि कम करना औरत का और शासन करना आदमी का काम है |घर बनाते वक्त राम को कमरा देता है और सीता अपनी कमरा के बारे में पूछने पर बताती है - तुम इस घर का नहीं है ,पराई घर का है |इसलिए जगह की आवश्यकता  नही |अनामिका   पूछती है, अपने परिवार में जिस औरत को जगह नहीं है उसको और कहीं कैसे जगह मिलेंगे ? लड़का और लडकी को एक ही नज़र से देखना है और एक ही प्रकार का व्यवहार करना है | नर और नारी की क्षमताओं का सदुपयोग  समाज को करना है | लडकियाँ  हवा,धुप और मिट्टी के समान है ,उसको जगह नहीं चाहिए यह   धारणा गलत   है |
     
   बचपन से ही गलत सीख देने के कारण औरत को समाज में दोयम दर्जा का स्थान प्राप्त हो रहे है |ऐसा विचार होना नहीं चाहिए |समाज में औरत को जगह मिलना है तो पहले परिवार में  जगह मिलना चाहिए |समाज में जो स्त्री विरोधी  दिखाई देते है उसके खिलाफ अनामिका  आवाज़ उठा रही है |






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 जयप्रकाश कर्दम                                     मेरे अधिकार कहाँ है ?

हिंदी के दलित साहित्यकार 

सामाजिक समानता का सामजिक न्याय संदेश फैलानेवाला साहित्यकार 
दलित समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को दिखानेवाला लेखक 
निदेशक, केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय,भारत सरकार, नई दिल्ली।
 उपन्यास-छप्पर, करुणा। बाल-उपन्यास-श्मशान का रहस्य।
 कविता-संग्रह-गूबा नहीं था मैं, तिनका तिनका आग।
 कहानी संग्रह-तलाश। शोधप्रबंध-श्रीलाल शुक्ल कृत रागदरबारी का सामाजशास्त्रीय अध्ययन),
 दलित विमर्श-साहित्य के आईने में, बौद्धधर्म के आधार-स्तंभ, जर्मनी में दलितसाहित्य। 
 संपादन-धर्मातरण और दलित, जाति-एक विमर्श, दलितसाहित्य (वार्षिकी); अनुवाद-चमार (दि चमार्स का हिंदी अनुवाद);
कविता की व्याख्या - https://youtu.be/ri75YsgDXW4 (जयप्रकाश कर्दम )

     


 मेरे अधिकार कहाँ है ? में  दलितों के जिंदगी  के बारे में बताते है| समाज  में अवर्ण और सवर्ण का अंतर बढ़ रहा है |दलित कई अधिकारों से वंचित हो  रहे है | अवर्ण और सवर्ण  के बीच की दुरी जनतंत्र को कमजोर बनाते है ,देश की प्रगति पर बाधा डालती है|शोषित वर्ग का एक व्यक्ति जो आर्थिक शोषण का ,अस्पृश्यता जैसे कई अनीतियों   का शिकार है,  अपने आप को ऊँचा  माननेवालों से  सवाल कर रहे है - मेरे अधिकार कहाँ है? 

  समानता का अधिकार भारतीय संविधान देता है |लेकिन समानता कहाँ है ?कवि इस कविता में यही प्रश्न उठा रहा हैसवालों के माध्यम से समाज को जागृत करने  का कोशिश यहाँ देख सकते है |रामराज्य और वसुधैव कुटुम्बकम की कल्पना किसी एक वर्ग अपने अधिकार से वंचित रह जाने पर लागू नहीं हो पाएगा |   कवि पूछ रहा है ,जिस देश में कुछ लोग बंगलो में और कुछ झोंपड़ीयों में रहते है ,कुछ लोग वातानुकूलित कमरों में रह कर आराम से काम करते  है और कुछ लोग श्रम की भट्टी में तपता है ,कुछ पेट भर खाना खाता है और कुछ लोग भूखा रह जाता है - वहाँ समता की कल्पना कैसे कर पाएँगे |

                      धन,धरती,पोखर,झील,शासन और सत्ता पर अपना अधिकार साबित कर जाती के आधार पर तुम मुझे घृणा की नज़र से देख रहे हो |ऐसे अवसर पर दोस्ती का मीनार कैसे खड़ा कर पाएँगे ? फिर भी तुम कहते हो हम सब भाई  है | हम सब भाई  है तो हमारे बीच खाई क्यों हो रहा है ?समता के राज्य में मेरा घर का द्वार कहाँ है ?भाई -भाई के बीच खाई है तो वह  राम राज्य कैसे कह पाएंगे ? अधिकार तुम्हारे पास हो और हम सदा के लिए गुलाम हो |यह कैसे सही हो सकता है |सदियों से हम असमानता का शिकार है |हमें बोलने का अधिकार नहीं है |अस्पृश्य हो कर पशु से भी बदतर ज़िन्दगी हम चला रहे है |मुर्दों के समान जीना अब नामुमकिन बात है ,हमे अपना अधिकार मिलना ही चाहिए | यही कवि कह रहा है |

संक्षिप्त व्याख्या - 



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कनुप्रिया  - धर्मवीर भारती 










पद्मश्री धर्मवीर भारती 
आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक,कवि ,नाटककार एवं अध्यापक 
धर्मयुग के प्रधान संपादक 

रचनालोक 
कहानी संग्रह : मुर्दों का गाव, स्वर्ग और पृथ्वी, चाद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान आदि 

काव्य रचनाएँ : ठंडा लोहा, सात गीत, वर्ष कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त

उपन्यास : गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन

पद्य नाटक : अंधा युग(महाभारत के अंतिम दिनों की झलक दिखाती रचना )

निबंध : ठेले पर हिमालय, पश्यंती

आलोचना : प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य

कहानियाँ अनकही, नदी प्यासी थी, नील झील, मानव मूल्य और साहित्य, ठण्डा लोहा

कनुप्रिया  भारती जी की पहली पत्नी कांता भारती की स्मृति दिलाती  है
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कनुप्रिया -सामान्य बातें 

कनुप्रिया
 एक मिथकीय काव्य रचना है 

सूरसागर और महाभारत 'कनुप्रिया'की स्रोत रचनायें है 

धर्मवीर भारती की राधा कनुप्रिया में देख सकते है 

धर्मवीर भारती ने 'कनु'(कृष्ण) को युग पुरुष के रूप में स्थापित किया है | 

धर्मवीर भारती ने राधा  को आधुनिक नारी के रूप में भी चित्रित किया है

'कनुप्रिया' पाँच खंडों में विभाजित है पुर्वराग ,मंजरी परिणय ,सृष्टि संकल्प,इतिहास और समापन

पुर्वराग ,मंजरी परिणय ,सृष्टि संकल्प में  राधा की प्रेमानुभूतियो की अभिव्यंजना 

इतिहास और समापन में युद्ध की विषमता का चित्रण 

प्रकृति का अनुपम चित्रण 

आदि  से अंत तक कवि ने राधा को  स्वतंत्र व्यक्तित्व दिया है | 

कनुप्रिया में राधा अनेक नारी रूपों का समन्वय है 

प्रेम और समर्पण की सरस अभिव्यक्ति 

कृष्ण अवतार पुरुष है ,अवतार का उद्देश्य समाप्त होने पर वह वापस जाएगा उस जगह में राधा जा

 नहीं सकती ,इसकी धारणा राधा को है |

कनुप्रिया  के अध्यययों के सार देखने के लिए निचे दिए लिंक पर जाईए 



कनुप्रिया -सृष्टि संकल्प



       क्नुप्रिया का मुल्यांकन 

        आलोचकों ने  भारती जी को प्रेम और रोमांस का रचनाकार माना है । डा लोहा, सात गीत वर्ष, कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त आदि आपकी प्रमुख रचनाएँ है | डॉ धर्मवीर भारती को १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

         पध्मश्री डॉ.धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर थे |हिंदी साहित्य के प्रमुख पत्रिका 'धर्मयुग'के संपादक के रूप में कर्मरत मनीषी थे भारती जी |आज़ाद भारत में मौजूद मूल्यहीनता का चित्रण आपकी 'अंधायुग'में हमे मिलेंगे |


      'कनुप्रिया' पाँच खंडों में विभाजित है पुर्वराग ,मंजरी परिणय, सृष्टि संकल्प, इतिहास और समापन| पुर्वराग ,मंजरी परिणय और  संकल्प  में संयोग श्रृंगार का सुंदर चित्रण हुआ है | इतिहास और समापन में वियोग श्रृंगार का चित्रण हम देख सकते है ‘‘पूर्व राग’’में पाँच गीत हैराधा के असीम सौन्दर्यनारी सुलभ लज्जा  का सूक्ष्म अंकन ‘‘पूर्व राग’’में हुआ है|इस काव्य में एक ही पात्र है -कनुप्रिया  |कृष्ण या कनु कनुप्रिया के सपनों में आने के समान ही प्रस्तुत किया गया  है |


        प्रतीक्षारत छायादार अशोक वृक्ष  कनुप्रिया की प्रतीक्षा में कई जन्मों से पुष्पहीन खडा हैं| कनुप्रिया कनु के बुलाने पर उसके पास आना चाहती है,मगर दुनिया क्या कहेंगे ,यह उसे ऐसा करने से रोकती है| घाट से लौटते वक्त कनु को देख कर किसी वनदेवता है समझ कर कनुप्रिया प्रणाम करती थी |लेकिन कनु उसे देखा तक नहीं|

        प्रकृति के कण कण में कनु की छवि देखनेवाली ,यमुना में नहाते समय कृष्ण को निहारनेवालीगृहकार्य से अलसाकर कदम्ब की छांह में अलसाई भाव से  पड़ी रहनेवाली  राधा (कनुप्रिया) इन गीतों में  हमारे सामने आते है| कनु के प्रति कनुप्रिया की प्रेम यहाँ देख सकते है |बाँसुरी की धुन सुन कर अपने आप को भूल कर कनुप्रिया कनु के पास आ जाती है और परमात्मा से मिलने की अनुभूति महसूस करती है |

            भारतीय विचारधारा के अनुसार जीवात्मा  और परमात्मा के मिलन के लिए सम्पूर्ण समर्पण होना परम आवश्यक है|यही समर्पण  कनु(कृष्ण) रूपी परमात्मा की प्राप्ति केलिए (राधा )कनुप्रिया ने किया  है|

          ‘‘मंजरी परिणय’’ में मिलन की अनुभूति का जिक्र  कनु कर रही है|उस अनुभूति से मुक्ति पाना उसे असह्य लगती है|बाँसुरी के माध्यम से तुमने कई बार मुझे बुलाया | हमेशा मैं आ नहीं पायी| पूरी प्रकृति और पुर वासियों को  कई बार उस मिलन का सुख अपनाने का मौका मिला | लेकिन राधा को नहीं मिला  | राधा के लिए कनु  बहुत फल और फूल लाते थे और कभी कभी उसे स्वीकारने वह अफल रहती|फिर रात में उस  अलौकिक पलों  के बारे में सोच कर भाव विभोर हो जाती थी|

         मिलन का पूरा आनन्द दोनों के अहम बोध मिट जाने पर ही ले पाएँगे |कनुप्रिया को उस अनुभूति अर्थात परमात्मा से मिलने की अनुभूति दिलाने के लिए अहमबोध मिटाने का कोशिश कनु करते रहते है | कनु और कनुप्रिया के मिलन का सुन्दर वर्णन प्रकृति के सुंदर बिम्बों और प्रतीकों के द्वारा कवि ने किया है |शरीर परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता मात्र है |साधक को अपने शरीर पर ज्यादा ध्यान नहीं देना है|

           "कनु तेरा कौन है" ?यह सवाल लोग भी पूछते है और राधा अपने आप भी पूछती है |कनु, कनुप्रिया के लिए कभी अन्तरंग सखा है तो कभी रक्षक है;कभी बन्धु है तो कभी सहोदर है|गुस्सा आने पर कनुप्रिया को लगती है कनु मेरा कोई नहीं है| उसी तरह कनुप्रिया मान  रही है कि  कनु केलिए वह सखी,साधिका,माँ,बन्धु,सहचरी ही होगी |कनुप्रिया अपने आपको सरीता और कनु को समुद्र मानकर,समुद्र में विलीन होने की कल्पना कर रही है |प्रत्येक जीव परमात्मा में विलीन होने की कोशिश मे है |मिलमिलन के वक्त जीवात्मा को कई तरह के विचार होते है ,वाही यहाँ बताया है |

          ‘‘सृष्टि-संकल्प’’ में अनुस्यूत चल रहे सृष्टी के सृजन ,प्रवाह और विनाश के बारे में चर्चा हो रही है|राधा पूछ रही है सृष्टी के सृजन,प्रवाह और विनाश तुम्हारे इच्छा के अनुसार ही हो रहा है तो सुरज और चाँद को भेज कर तुम किसको बुला रहे हो?राधा उत्तर भी दे रही है तुम मुझे बुला रही थी| प्रकृति के असीम चित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर राधा साबित कर रही है कनु और कनुप्रिया का कोई अलग अलग अस्तित्व नहीं है| दोनों एक ही है| राधा के रूप सौन्दर्य प्रकृति के विभिन्न दृश्यों के माध्यम से कवि प्रस्तुत कर रहे है | मिलन की वेला का आनंद का सुन्दर चित्रण यहाँ देख पाएँगे| प्रियतम के सामीप्य में प्रियतमा को होनेवाली अनुभूतियों का वर्णन सूक्ष्मता से  कवि ने किया है | जीवात्मा को परमात्मा से मिलने पर जो अनुभूति होते है ,यही कवि दिखाया है |


           ‘विप्रलब्धा’में राधा का विरह वर्णन है|बुझी हुई राख,टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद जैसे प्रकृति के बिम्बों के सहारे कनु से  मिलने के लिए तड़पनेवाली कनुप्रिया हमारे सामने प्रस्तुत हो रही  है| कनु के साथ बिताये पलों के बारे में सोच कर दिन बितानेवाली राधा का वर्णन देखिए –“अब सिरफ मैं हूँ,यह तन है और संशय है”| वृन्दावन लीला के बाद  कनु अपने कार्यक्षेत्र मथुरा की और जाते है और फिर युद्ध क्षेत्र में भी जाना पड़ता है |उस समय कनु को वृन्दावन आने का मन  तो होगा लेकिन आ  नहीं पाता
| इससे खिन्न राधा पूछती है, “क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए”| 

 


       युद्ध समाज के प्रत्येक चराचर पर कौनसा असर डालता है
,इसका सूक्ष्म वर्णन ‘अमंगल छाया’ में देख सकते है| जिस आम के पेड़ के नीचे बैठ कर कनु और कनुप्रिया बातें करते थे ,उसी आम के पेड़ के सामने से आज महाभारत युद्ध के लिए सेनाएँ जा रहे है | उस वक्त कनु के मन में या सैनिकों के मन  में कोई कोमल भावनाएँ नहीं होते | रास्ते का  रुकावट ही है -वह पेड़| लड़ाई किस तरह मानव के मन को  बदल डालते है,इसका चित्रण भारती जी ने इस खंड में किया है | युद्ध और प्रेम -इन दोनों में किसको परम आनन्द देने की क्षमता है कनुप्रिया पूछ रही है? वास्तव में  भारती जी यह सवाल युद्ध केलिए तत्पर दुनिया से पूछ रहे है |  


  
         कनुप्रिया युद्ध के कारण खो गए आत्म निर्भरता को याद  करती हुई बता रही है -कर्म,स्वधर्म,निर्णय,दायित्व यह सब शब्द मात्र है,परम शांति देनेवाला नहीं है | ये शब्द व्यस्तता का है | मिलन के वक्त जो अर्थहीन शब्द निकलते है,वह सार्थक शब्द है |
   कनु मध्यस्थ,तटस्थ और युद्धरत हो कर महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी |धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करने के बाद भी महाभारत युद्ध के विजेताओं को शान्ति नहीं मिली | भारती जी दुनिया को याद  दिला रहा है -युद्ध से  शाश्वत शान्ति नहीं मिलेंगे |
    कनुप्रिया को एहसास हो रही है,  युद्ध में विजेता होने पर भी कनु को शान्ति नहीं मिलती| कनुप्रिया के गोद में सर रख कर सो जाने पर ही उसके मन को परम आनंद मिल जाता  है | अपने गोद में सर रख कर कनु सो रहे है,ऐसा मान कर वह बता रही है 
“सो जाओ योगेश्वर ...
जागरण स्वप्न है,छलना है,मिथ्या है|” 
इतिहास देखने से  हमें पता चलेगा कि युद्ध से मिले सभी ख्याति को छोड़ कर नायक शांति के पथ में गए है |

        भारतीय विचारधारा के अनुसार नर और नारी के मिलन से ही जीवन पूर्णता हासिल कर पायेंगे| राधा के बिना कृष्ण अधुरा है|दुसरे शब्दों में राधा ही कृष्ण को पूर्णता प्रदान कर  रही है| कल्पना और मिथक को मिला कर  पूरी कथा को नये संदर्भों में  भारती जी ने प्रस्तुत किया है | आधुनिक नारी की अस्तित्व की समस्या,मानसिक तनाव,युद्ध विभीषिका जैसे कई विषय भारती जी ने हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है |‘’कनुप्रिया’ के दोनों पात्र- कनु और कनुप्रिया अपनी प्रेम विह्वलता के साथ-साथ युगांतकारी जीवन मूल्यों की रक्षा करने में भी ध्यान देनेवाले है |

       कनुप्रिया के विषय में डॉ. रामजी तिवारी लिखते है ‘‘.युद्ध के कुशल संचालक गीताज्ञान के व्याख्याता, योगेश्वर कृष्ण आत्यन्तिक रूप से हताश होकर राधा के कंधे का सहारा लेते हैं | युद्ध किसी समस्या का समाधान नही है | इस शाश्वत सत्य से भारती हमें साक्षात्कार कराते हैं | आज के मानसिक संत्रास, विक्षोभ, विद्रूप और बिखराव के समाधान के लिए युद्ध नहीं, प्रेम का आश्रय चाहिए | राधा मानवीयता की संजीवनी, शक्ति की प्रतीक रूप में चित्रित की गई है, जो आज विकृत सम्बन्धों के लिए विश्वसनीय समाधान प्रस्तुत करती है |"(1)

1.प्राची ,जून २०१६  

 
नाट्य प्रस्तुती  देखें  - कनुप्रिया नाट्य प्रस्तुती
                  



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